Nartanadhyay: Acharya Pasharvdev Krat Sangit Samayasar
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-भारतीय शास्त्रीय नृत्य कला का इतिहास अत्यंत प्राचीन एवं वृहद है और उतनी ही प्राचीन शास्त्रीय नृत्य-ग्रंथों की परम्परा। संगीत समयसार के रचयिता आचार्य पार्श्वदेव दिगम्बर जैनाचार्य थे। वे महादेवार्य के शिष्य और अभयचन्द्र के अनुयायी थे। इस ग्रंथ की रचना ईसा की 13वीं शती में की गई थी। वे एक उच्च कोटि के गायक एवं देशी संगीत के सुपण्डित थे। उनको संगीतकार एवं श्रुविज्ञान-चक्रवर्ती की उपाधि दी गई थी। यह प्राचीन ग्रंथ भारतीय संगीतशास्त्र के इतिहास की एक अज्ञात एवं अचर्चित किन्तु महत्त्वपूर्ण कड़ी है। संगीत समयसार ग्रंथ में 'नौ अधिकरण हैं। सप्तम अधिकरण में नृत्त का अर्थ, आंगिक अभिनय के विस्तृत भेद, हस्त भेद, करण, चारी, भ्रमरी, लास्य अंग. स्थानक, पाद भेद, पात्रलक्षण आदि का विस्तृत वर्णन किया गया है। कुछ देशी नृत्तों का वर्णन, उसकी विधि, उसमें प्रयोग होने वाले वाद्य एवं गीत का भी वर्णन उन्होंने अपने ग्रंथ में किया है। वाद निर्णय के अन्तर्गत नृत्य प्रतियोगिता में पात्रलक्षण एवं गुण दोष का भी वर्णन किया गया है। संगीत समयसार एक ऐसा ग्रंथ है जिसमें संगीत के सैद्धांतिक पक्ष के साथ व्यवहारिक पक्ष का भी वैज्ञानिक विवेचन किया गया है। आचार्य पार्श्वदेव ने बहुत ही कम शब्दों में गम्भीर, किन्तु नृत्य के महत्त्वपूर्ण पहलुओं पर अपना स्पष्ट मत रखा है। 13वीं सदी का यह ग्रंथ उस युग का है जब विभिन्न सम्प्रदायों की विविध मान्यताएँ अव्यवस्थित-सी थी। उन्हें व्यवस्थित एवं परिभर्जित कर अपने ग्रंथ में आचार्य पार्श्वदेव ने एक माला में पिरोया है। लेखक का अभिमत है कि इस ग्रंथ के नृत्ताध्याय के विवेचनात्मक स्वरूप को पुस्तक के रूप में लान
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